वैदिक ऋषि कवष ऐलूष --!

       

जाति नहीं कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था

"चातुर्य वरणं मया सृष्टा गुण कर्म विभाग:" भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में वर्ण व्यवस्था के बारे में ये कहा है गीता का महत्व यह है कि वह वेदों का सार है, इसलिए वैदिक काल में जाति व्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था थी। कोई ऊँच नहीं कोई नीच नहीं न किसी के साथ कोई भेदभाव यही है बैदिक धर्म की ब्यवस्था। अपने कर्मो के आधार पर वर्ण बदल जाती थी इसके बहुत सारे उदाहरण पाए जाते हैं। हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि ऋषि अगस्त महान मंत्र द्रष्टा होने के बावजूद, अपने समय के एक अद्भुत जीवंत भरा ब्यक्तित्व होने पर भी सप्त ऋषियों में स्थान नहीं दिया गया। इसका अर्थ यही है कि वे ब्रहमण परंपरा मानने वाले ऋषियों में न जाकर किसी अलग सामाजिक श्रेणी से सम्बन्ध रखते थे। शबरी अर्थात भील जाती की थी, जिसने भक्ति समर्पण की धारा क़ा पहला शिखर उद्धरण पेश किया। महर्षि बाल्मीकि भी बड़े घराने न होकर सामान्य परिवार के थे पर उन्होंने बैदिक ऋचाओ से अलग संस्कृत श्लोकों की रचना की जिसे लौकिक संस्कृत कहते है। बाल्मीकि रामायण लिखकर वे आदि कबि ही नहीं उस काल के सर्बश्रेष्ठ ऋषि भी हो गए। जिनके बारे में भगवान श्री राम कहते है की यदि बाल्मीकि कह दे की सीता पबित्र है तो सभी को मान्य होगा, उनकी इतनी प्रतिष्ठा है।

मंत्रद्रष्टा कवष एलूश

समाज के सभी वर्गों में पैदा हुए ज्ञान, अध्यात्म, भक्ति, राज्य ब्यवस्था, समाज ब्यवस्था व अर्थतंत्र में इतना योगदान किया की किसी के काम का आकलन करना ठीक नहीं। यानी सभी बर्गो कोई भेद नहीं था, बैदिक काल में एक अद्भुत नाम है कवष येलुश क़ा, जो वर्ण ब्यवस्था के हिसाब से शुद्र थे। लेकिन वे महान बैदिक ऋचा मंत्रद्रष्टा वाले ऋषि थे, उन्होंने देवताओ के साथ जुडी बैदिक श्लोक को जमीन से जोड़ा, एक निराला सूक्त लिखा -अक्षसुक्त, अक्ष यानि जुवा खेलने के पासे, उससे जुडा सूक्त जिसमे जुवारी की बड़ी ही दर्द भरी भाव लिखी है। एलुष यानि इलुष क़ा बेटा, कवष नामक मंत्र रचनाकार क़ा इलुष पुत्र था, सूद्र वर्ण क़ा होने के कारण कितना अपमान सहना पड़ा इसका सजीव वर्णन इतर पुत्र महिदास ऐतरेय ने जो अपने प्रसिद्द ग्रन्थ ऐतरेय ब्राहमण के आठवे अध्याय में लिखा है। बाद में इस कवष नाम क़ा महापुरुष अपने प्रतिभा के बल पर अपने पुत्र तुराकव्शेया को जन्मेजय राजा जो महाभारत के काल के पहले यानी श्री राम के आस -पास हुआ था ने विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठित किया..।

और ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए

राजा जन्मेजय ने सरस्वती नदी के किनारे यज्ञ किया, जिसमे कवष यलुश क़ा ब्यक्तित्व उभर कर आया, सरस्वती नदी के किनारे जो ऋषि लोग यज्ञ में सामिल थे, उन लोगो ने कवष यलुश को सोमयज्ञ से बाहर कर दिया। यह सूद्र यानी [दास्यः पुत्रः] अब्रहमन है, हमारे बीच यज्ञ की दीक्षा कैसे ले सकता है! सभी ब्रह्मण ऋषि उसे सरस्वती नदी के किनारे से दूर ले गए जहा पानी क़ा अभाव था, ताकि वहा पीने क़ा पानी न मिले, उस धन्वा में ही वह धुनी रमा कर बैठ उस 'कवष' ने 'अवान नन्पात' नामक देवता की स्तुति में श्लोक रच डाला और पानी से प्यार करने वाले देवता को प्रसंद कर लिया फिर क्या था। "सरस्वती नदी" क़ा पानी उछलते हुए उसके पास आ गया, "सरस्वती नदी" के पानी ने उसे चारो तरफ से घेर कर प्रसन्न कर दिया इसलिए उस जगह क़ा नाम ''परिसारक'' हो गया, तब से वह "सरस्वती नदी" क़ा "परिसारक तीर्थ" हो गया, [ऐतरेय ब्रह्मण -'ऋषयो वा सरस्वत्या'' से लेकर सामंत परिसारक तक ] फिर क्या था वे सभी "कवष ऐलूष" के पास आ गए और यज्ञ में सदर स्थान दिए। हमें  'कवष ऐलूष' की महानता के बारे में बिचारना चाहिए कि उन्होंने बिना किसी प्रतिक्रिया के पलायन नहीं किया, बल्कि संघर्ष करके सरस्वती क़ा प्रवाह को अपनी ओर कर देने की जीवटता दिखाई। कवष ने साबित किया की ब्रह्मण के अतिरिक्त ऋषियों ने देश समाज और सभ्यता को अपने कर्म द्वारा आगे बढाया, हमें समझने के लिए पर्याप्त है कि कैसे अब्राह्मण ऋषियों ने ज्ञान व प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष किया और सफलता पाई।

संघर्षशील प्रतिभा संपन्न एलुष 

इस अद्भुत विद्वान "कवष एलुश" क़ा "वैदिक ऋचा" पढने लायक है, कवष के पाच सूक्त [ऋग्वेद, मंडल १० सूक्त संख्या ३०-३४] में तो, 'अवानपात' को ही संबोधित किया है। एक 'विश्वदेवा' को दो "इन्द्र" को समर्पित है वही पाच जो अति प्रसिद्द है [जुवारी सूक्त] जो येलुश को बाकि वैदिक ऋषियों से अलग करता है, "कवष येलुश" क्रन्तिकारी ऋषि है, 'वाश्वदेवा' की स्तुति में [१०-३१]सूक्त लिखते है। तो अपने पापो के लिए न घिघियाता है न ही क्षमा प्रार्थी है, बल्कि कहता है की इन देवताओ से दोस्ती करके हम दुनिया भर के पापो से मुक्त हो जायेगे। मंत्र संस्था [१०-३२,३] में कवष ऐलूष "इन्द्र" से इस तरह कहते है की हे इंद्र, जैसे पत्नी अपनी भावनाओ को पति तक पहुचाती है और पुत्र अपना सारा धन पिता को दे देता है, वैसे ही तुम मेरे शरीर को और ज्यादा सौंदर्य प्रदान करो। इस प्रकार "कवष येलुश" ने बिना किसी सिकायत, प्रतिक्रिया के समाज में अपना उच्च स्थान बनाते हुए ब्रह्म्नेत्तर स्थान बनाया ही नहीं उसके सूक्त वेदों की ऋचाओ के द्वारा आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहे है। 

शतपथ ब्राह्मण के यज्ञ में सोमपान प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है।

"चत्वारो वै वर्णा:ब्राह्मणों राजान्यो वैश्य: शूद्र: ।
 न एतेषां एकश्चन भवतिय: सोमं वमति। (५'५'४'९)
इसका अर्थ इस प्रकार है वर्ण चार है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इसमें कोई भी सोम का त्याग नहीं करेगा, यदि कोई भी त्याग करेगा तो उसको प्राश्चित करना पड़ेगा।
ऐतरेय ब्राह्मण में इतिहास का उल्लेख मिलता है कि कवष ऐलूष नाम का ब्यक्ति शुद्र कुल में पैदा हुआ, वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना आज भी ऋग्वेद में(१०'३०'३४) शूक्तो पर मंत्र द्रष्टा के रूप में ऋषि कवष ऐलूष का ही नाम मिलता है।

समाज में वर्ण ब्यवस्था थी न कि भेद-!

इससे यह साबित होता है की पहले भी समाज चलाने की दृष्टि से वर्ण ब्यवस्थाये थी लेकिन उनमे भेद नहीं था। सभी बड़े मन के थे कोई संकीर्ण नहीं था बाल्मीकि, वेदव्यास, हनुमान, दीर्घतमा, कवष एलुश, संत रबिदास, महात्मा फुले, और कबीरदास ऐसे संतो की महान परंपरा याद दिलाती है जो हमें आज परिवर्तन की दिशा में सोचने को मजबूर करता है। वैदिक काल से आज तक नित्य -नया -नूतन परिवर्तन होता रहा है सभी पंथ-संप्रदाय अपने को वेदों से ही प्रमाण सिद्ध करते हैं यही भारतीय परंपरा है।
                     ----ऐसे थे हमारे ऋषि- महर्षि----

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