दलित -मुस्लिम एकता और डॉ अम्बेडकर

         
   

दलित नहीं स्वाभिमानी

आज बड़ी संख्या में दलित चिंतक हो गए हैं जिन्हें न तो दलित संस्कृति के बारे में जानकारी है न ही उनकी परंपरा का ज्ञान। एक मेधावी चिंतक विचारक महाराष्ट्र में डॉ भीमराव रामजी पैदा हुए वे इतने मेधावी थे कि उनके गुरु ने अपना गोत्र नाम दे दिया वे डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर हो गए। वे इतने प्रतिभा संपन्न थे कि उनकी शिक्षा लन्दन में हो, बड़ोदरा राजा ने उन्हें क्षात्रवृति दिया और वे अपने गुरु के आशीर्वाद और वड़ोदरा राज़ की सहायता से भारत ही नहीं विश्व के ख्याति नाम चिंतक हो गए। वे विचारक थे भारत के दबे कुच ले समाज के बारे में करुणा थी, उन्होंने कहा कि वैदिक काल में छुवा -छूत, भेद -भाव नहीं था ये इस्लामिक काल की देंन है। फिर क्या था ? वे बढ़ते गए संत कबीर के तरफ-!
वे बढ़ते गए संत रविदास की ओर-!
वे बढ़ते गए एतरेय ब्रह्मण के प्रवक्ता महिदास एतरेय की ओर !
वे बढ़ते गए महर्षि बाल्मीकि की ओर-!
वे बढ़ते गए वैदिक ऋषि मामतेय दीर्घतमा की ओर ! और वे बढ़ते गए वैदिक ऋषि कवष ऐलूष की ओर-!
उनके अंदर हीन भावना  छू तक नहीं पायी थी ।

छुवा छूत इस्लामिक काल की देन

डा अम्बेडकर ने कहा "हम मुसलमानों के साथ नहीं जा सकते मुसलमानों का भाई चारा केवल मुसलमानों के लिए है न की अन्य समाज के लिए"। वे हमारे सीधे- साधे समाज को निगल जायेंगे हमारी परंपरा संस्कृति समाप्त हो जाएगी। हमारे वैदिक वांग्मय में छुवा छूत, भेद-भाव नहीं था ये इस्लामिक काल की देंन है। हम इसी समाज में रहकर इसे दूर करेगे उन्होंने कहा वेदों में जिन शूद्रों का वर्णन है वे आज के शुद्र नहीं है । आज के शुद्र इस्लाम की देन है। भारतीय दर्शन की ही देन है कि दलित समाज में जाग्रति आयी है वे चौतरफा उन्नति कर रहे हैं। वे उन सभी सुख सुबिधाओं का उपयोग कर रहे हैं जिसे तथा कथित सवर्ण समाज कर रहा है। हिन्दू समाज में भेद- भाव लगभग समाप्त सा हो गया है हाँ अभी गांव इससे उबर नहीं पा रहे हैं। लेकिन उन्होंने राह पकड़ ली है हाँ कुछ राजनैतिक दल इसमे वाधा आज भी बने हुए हैं जिन्होंने ६०-६५ वर्षों तक शासन किया है वे इसके लिए जिम्मेदार हैं। जो दलितों के बारे में अधिक सहानुभूति दिखाते हैं जैसे वामपंथी दल, समाजवादी और बसपा जो केवल बोलते है इनके लिए कुछ करते नहीं। क्या इन लोगो ने दलितों की उन्नति और विकास के लिए कुछ किया तो इसका उत्तर एक ही है कि कुछ भी नहीं-! कहीं दलित मुस्लिम एकता के नाम पर इन्हे देश विरोधी ताकतों के साथ जोड़ने का प्रयास तो नहीं ! भारत तेरे टुकड़े होंगे "इंशा अल्ला- इंशा अल्ला" का नारा लगाने वाले इस्लामवादी और वामपंथी दलित मुद्दों को हाईजैक कर कुछ दूसरा ही जामा पहनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। कई अतिवादी संगठन दलितों को हिन्दूवाद से बचाने के नाम पर भारत के खिलाफ जंग को भी न्यायसंगत बताने लगे हैं। इसी तरह 'चर्च तत्व' दलितों के खिलाफ होने वाले भेद-भाव के नाम पर भारत पर प्रतिवन्ध लगाने की पश्चिमी देशों मे मांग करते हैं इनसे सावधान रहने और इन्हे पहचानने की जरूरत है।      

एक लंबी परंपरा

इसके उलट जिसे दलित विरोधी सिद्ध किया जा रहा है (आरएसएस) इन्ही दलित, जन जातियों के बीच एक लाख से अधिक सेवा कार्य करता है। जिसमे सेवा, शिक्षा, संस्कार और स्वस्थ द्वारा उनके उन्नति व बराबरी का मार्ग प्रसस्त होता दिख रहा है। इस कारण केवल भाषण नहीं तो ब्यवहार के द्वारा भी होना चाहिए, जहां देश के विकाश मे दलितों की सहभागिता है वहीं समाज मे समरसता हेतु लंबे संघर्ष का इतिहास भी है, आखिर वैदिक ऋषि दीर्घतमा, कवश एलुष, महर्षि वाल्मीकि, महिदास एतरेय, संत रविदास, संत कबीर दास और डा. अंबेडकर, वावू जगजीवनराम ने संघर्ष कर समाज मे उच्च स्थान प्राप्त किया उसका सिद्धान्त क्या था ? क्या ये इस्लाम मे हो सकता था या ईसाईयत मे संभव है तो नहीं! 

"एकंसदविप्रा बहुधावदन्ती"

यह ऋग्वेद का मंत्र है जिसमे बहुदेव उपासना एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को समर्पित होती है, यहाँ भगवान ने हमे समान आगे बढ़ने प्रगति करने शास्त्रार्थ करने का अवसर दे लोकमत का भाव पैदा किया। देवता बहुत हो सकते हैं उसकी शक्तियाँ विबिध हो सकती हैं किन्तु वे एक ही परमशक्ति के अधीन है। यही एकम है, इसी को भगवान कृष्ण ने गीता मे कहा तुम किसी प्रकार से किसी की पूजा करते हो वह हमे प्राप्त होता है। इसी आधार पर हिन्दू धर्म मे मत, पंथ, संप्रदाय, दर्शन तथा विचार विकसित हुए, वे सभी इसी ऋग्वेद, गीता से प्रेरित हैं। मौलिक सिद्धान्त "एक विराट पुरुष" की संकल्पना जो सदैव जोड़ने तथा गंगाजी के समान शुद्ध रहने की प्रक्रिया, इसी कड़ी को हमारे चिंतकों ने आगे बढ़ाते हुए कहा..!
            सर्वेभवन्तु  सुखिना  सर्वेसन्तु  नीरामया।
            सर्वेभद्राणी पश्यंतु माकश्चित दुख भागभवेत॥
महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि यह कोई कामना नहीं है वरन ईश्वर का निर्देश है कि सबसे सुखी वही ब्यक्ति होगा जो अपना सम्पूर्ण जीवन दूसरों को सुखी देखने मे लगा देता है। यही हिन्दू धर्म की सर्वमान्य, सर्व कल्याणकारी भावना है इसी का अनेक प्रकार से भारत के सभी दर्शन व सभी धार्मिक ग्रन्थों मे प्रतिपादित किया गया है।
गीता मे भगवान कहते हैं,
 "ते प्राप्नुवंति मामेव सर्वभूतहिते रताः"॥ (गीता 12-4) 
 अर्थात "सभी की भलाई मे जो रत हैं वे मुझको ही प्राप्त होते हैं", इसी भाव को वेदब्यास ने भी अपने शब्दों मे ब्यक्त किया है "परोपकारा पुण्याय पापाय परपीडनम" दूसरों पर उपकार करना ही पुण्य तथा दूसरे को दुख देना ही पाप है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं सब जग सुखी रहे ऐसी दृढ़ इच्छा शक्ति रखने से हम सुखी होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं "परहित सरिस धर्म नहिं भाई", यही हिन्दू धर्म है इससे विकसित स्वरूप को हिन्दू संस्कृति कहते हैं।

कहीं कोई भेद नही,


    ईशा वास्यमिद सर्व यत्किंचित जगत्यान जगत।
     तेन तक्तेन भूञ्जिथामा गृधह कस्य स्विद्धनम ॥
अर्थात सम्पूर्ण जगत मे ईश्वर ब्याप्त है ईश्वर को साथ रखते हुए त्याग पूर्ण इसका उपयोग करो इसमे आसक्त मत होवों। भारतीय दर्शन के इस मंत्र की प्रथम पंक्ति ने ही मानवीय समाज रचना के ताने-बाने की आधार शिला रख दी, ऋषि यज्ञवल्क्य इसी विचार को "एष त आत्मा सर्वातरा" (बृहदारण्यकों उपनिषद 3-4-2) अर्थात जो आत्मा मेरे अंदर है वही सभी के अंदर है। "सम सर्वेषु तिश्ठंत परमेश्वरम" (गीता 13-27) अर्थात सभी के अंदर ईश्वर संभव से विराजमान है इसी सत्य को बारंबार ग्रन्थों मे ऋषियों ने कहा है ।
 "ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदों मध्यमासों महसा वि वावृधु"॥ (ऋग्वेद 5-59-6)  
  (अर्थात पृथ्वी पुत्रों मे) उनमे -हममे कोई श्रेष्ठ नहीं कोई कनिष्ठ नहीं वे हम समान हैं मिलकर अपनी अपनी उन्नति करते हैं एक कदम और आगे चलकर ऋषि कहते हैं हम सभी भाई रूप मे एक दूसरे को आगे बढ़ाते हैं। इसी मानवता व स्वतन्त्र विचार को लेकर आदि काल से हिन्दू समाज को बिना किसी विकृति के आगे बढ़ता रहा और बीच के काल मे जब बौद्ध विचार वढा तो सभी ग्रन्थों का लोप प्राय हो गया प्रतिकृया मे ऋषि विचार को भ्रमित करने का प्रयास किया गया परिणाम स्वरूप देश गुलामी के आगोश मे आ गया। इस्लामिक काल मे जो धर्म रक्षक थे उन्हे ही पद्दलित करने का प्रयास किया गया।  

एकता की विचित्र बातें


"दलित मुस्लिम भाई-भाई, हिन्दू जाती कहाँ से आयी"- "इस्लाम जिंदावाद, अंबेडकर जिंदवाद" के पोस्टर लगाने वाले संगठन क्या इस्लाम और मुस्लिम राजनीति को लेकर अंबेडकर की लेखनी पर अपना विचार स्पष्ट करेंगे--! अगर दलित संगठन यह मानते हैं कि अंबेडकर द्वारा दिखाये गए "धम्म मार्ग" भारत के लिए उचित है तो वे कभी इसे लेकर मुस्लिम समाज मे क्यों नहीं गए ? अंबेडकर ने स्पष्ट लिखा है कि इस्लाम ने ही भारत वर्ष से "बौद्ध धर्म" का सम्पूर्ण विनाश किया था। मध्य काल मे इस्लामी हमलों ने बड़े पैमाने पर "बौद्ध मठों" और "विहारों" का विध्वंश किया और बौद्ध जनता का जबरन धर्मांतरण भी किया। क्या उनकी ओर से यह बताया जायगा कि भारत के विभाजन पर अंबेडकर, सावरकर, स्वामी श्रद्धानंद और आरएसएस के विचारों मे कितना अंतर है -?
         दरअसल दलित- मुस्लिम एकता की पूरी राजनीति ही अंबेडकर के "प्रबुद्ध भारत" की कल्पना के विरुद्ध है। इसमे विदेशी और चर्च का षणयंत्र दिखाई देता है, ऐसे विचार डॉ अंबेडकर के विचारों का हनन भी है। क्या किसी पठान, शेख और सैयद के दरवाजे पर कोई छोटी जाती का मुसलमान बैठने को पाता है-? शिया को सुन्नी की मस्जिद मे जाने नहीं देता, तो बहाई को किसी शिया मस्जिद मे, इतना ही नहीं किसी भी पठान की मस्जिद मे कोई जुलाहा, धुनिया व अन्य मुसलमान जा सकता है क्या-? गया के अंदर एक ह्वाइट हाउस मस्जिद है जहां जो भूमिहार समाज से मुसलमान हुए हैं वही जा सकते हैं। यह केवल ऊपर से दिखाई देने वाली बात है आज असली मुसलमान होने का युद्ध जारी है जो असली खलीफा बनने के लिए आतंकवाद मे विश्व को झोकने को तैयार हैं वे दलितों के साथ क्या न्याय करेंगे-?

क्या दलित मुस्लिम एकता संभव है

 वास्तविकता यह है की ये दलित नहीं ये तो धर्म रक्षकों की संताने हैं । यही बात बार-बार डा आबेड़कर ने कही है क्या उसे नजरंदाज किया जा सकता है! कहीं ऐसा तो नहीं--! "एक बार महात्मा गांधी ने अली वंधुओं से पूछा कि हिन्दू मुस्लिम एकता कैसे हो सकती है ? तो आली वंधुओं ने उत्तर दिया जिस दिन सभी हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेंगे उसी दिन हिन्दू मुस्लिम एकता हो जाएगी"। ये सेकुलर प्रतिकृया वादी नेता कहीं दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर उन्हे अपने पूर्वजों व अपनी संस्कृति से दूर तो नहीं करने चाहते। इस पर भी विचार करने की अवस्यकता है। आज नए-नए दलित चिंतक पैदा हो गए हैं जिन्हें अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं है वे केवल प्रतिकृया मे हैं। आज भूमंडलीकरण के दौर मे वह अपने मानवीय सम्मान के प्रति सजग और सचेत है । किसी भी जातीय श्रेष्ठता को अस्वीकार करता है मध्यम मार्ग पर चलकर सभी मे मानवीय (हिन्दुत्व) संवेदना का आलंगन करने को आतुर है। 

धर्म रक्षकों की सन्तानें

हम सभी को ज्ञान होना चाहिए कि वैदिक काल मे ही नहीं बल्कि महाभारत काल मे ये जातियाँ नहीं थी। उन शास्त्रों मे वंश का वर्णन मिलता है इस्लामिक हमले मे जो जातियाँ धर्म रक्षक थी वही काल के गाल मे समा गईं । मंदिरों की रक्षा व पूजा का भार क्षत्रियों व पुरोहितों का था वे पराजित हुए उन्हे या तो "इस्लाम स्वीकार करो या मैला उठाओ" उन्होने धर्म वचाया वे मुस्लिम दरवार मे काम करते थे लेकिन उनका छुवा पानी भी नहीं पीते थे। धीरे-धीरे वे अछूत हो गए उनका मान भंग हुआ भंगी कहलाए। संत रविदास "चमरशेन वंश" के राज़ा थे स्वामी रामानन्द के शिष्य सन्यासी थे। दिल्ली शासक सिकंदर लोदी से संघर्ष मे पराजित लेकिन भारत मे सर्वमान्य साधू सर्वाधिक शिष्य थे इनके पास! सिकंदर लोदी ने "सदन कसाई" को "संत रविदास" के पास मुसलमान बनाने हेतु भेजा संत रविदास मुसलमान नहीं बने बल्कि सदन कसाई हिंदू धर्म में आ गया। उन्हें इस्लाम नहीं स्वीकार करने की सज़ा "चांडाल" घोषित किया। उनके शिष्यों ने भी स्वयं को चांडाल घोषित कर लिया। यदि हमारे गुरू चांडाल तो हम भी चांडाल ! "चांडाल" का अपभ्रंश "चमार" हो गया धीरे-धीरे वे अछूत हो गए लेकिन धर्म नहीं छोड़ा। बिहार मे पासवान जाती के लोग हैं वे गहलोत क्षत्रिय हैं। गयाजी के "विष्णुपाद मंदिर" की सुरक्षा हेतु 'राणा लाखा' के नेतृत्व मे आए थे । यहीं वस गए मुसलमानों से सुरक्षित रहने हेतु 'सुवर' पालना शुरू कर दिया लड़की की विदाई के समय मुगलों के डर डोली मे छौना रखते। वे धीरे धीरे पददलित हो गए और गहलौत से वे 'दुसाद' कहलाए। अछूत होना स्वीकार किया धर्म नहीं छोड़ा। वैदिक काल मे ऋषि दीर्घतमा, कवष एलुष, एतरेय महिदास आगे आए तो जहां त्रेतायुग (रामायण काल) मे महर्षि वाल्मीकि ने रामायण लिखकर हिंदुधर्म की रक्षा की। वहीं द्वापर- कलयुग के संधि काल (महाभारत काल) मे वेदव्यास ने महाभारत एवं पुराणों को लिख धर्म की रक्षा की। इसी परंपरा की रक्षा करते हुए संत रविदास तथा संत कबीरदास समाज को जागृत कर खड़ा किया। 

और डॉ योगेंद्र मण्डल

स्वामी दयानन्द सरस्वती की राह को आसान करते हुए डॉ भीमराव अंबेडकर ने सामाजिक विकृतियों को दूर करते देश के राष्ट्रिय चरित्र को उजागर किया। उन्होने कहा ''मै ईसाई और इस्लाम मत नहीं स्वीकार करुगा नहीं तो हमारी निष्ठा भारत के प्रति न होकर मक्का, मदीना और योरूशलम हो जाएगी इस कारण मै अपने भारतीय धर्म को स्वीकार करता हूँ।" दलित मुस्लिम एकता की बात करने वालों को सबसे अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम को पढ़ना समझना चाहिए। "बंगाल मे एक दलित नेता हो गये योगेंद्र नाथ मण्डल जिन्हे डॉ अंबेडकर की वह बात समझ मे नहीं आई जिसमे उन्होने कहा था कि मुसलमानों का भाई चारा केवल आपस यानि मुसलमानों के लिए ही है न कि अन्य समाज के लिए। प्रतिक्रीया मे उन्होने (योगेंद्र मण्डल) ने दलित मुस्लिम एकता कि बात कि और बहुत सारे दलित पिछडी जतियों के लोगो को पाकिस्तान मे रहने का आवाहन किया परिणाम स्वरूप बड़ी संख्या मे (25%) आज के बंगलादेश मे रह गये। उन्होने इस्लाम कि प्रकृति को नहीं समझा जिन्ना ने उन्हे पाकिस्तान का प्रथम कानून मंत्री होने का सौभाग्य प्रदान किया पाकिस्तान बनाते ही परिणाम क्या हुआ-? दलित पिछड़े गरीब हिंदुओं पर हमले शुरू हो गया उनकी बहन- बेटियाँ उठाई जाने लगीं 'योगेंद्र मण्डल' चिल्लाते रहे कोई सुनने वाला नहीं उनके कारण आज भी विश्व का सबसे दुखी मनुष्य बंगलादेशी हिन्दू है आखिर क्या हुआ-? योगेंद्र मण्डल का तीन वर्ष भी वे पाकिस्तान मे टिक नहीं पाये उन्होने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री "लियाकत अली" को एक बहुत भाउक पत्र लिखा और प बंगाल के एक गाँव मे जीवन भर पश्चाताप हेतु अनाम जिंदगी बिताई, लेकिन उनके कारण आज लाखों दलित हिन्दू बंगलादेश मे अपनी बहन- बेटियों की इज्जत और जिंदगी बचाने की भीख मांग रहा है।" इस विषय पर दलित चिंतकों को विचार करना चाहिए कि ये दीर्घतमा, कवष एलुष, वाल्मीकि, संत रविदास, संत कबीरदास, भीमराव अंबेडकर और बाबू जगजीवन राम की सन्तानें है जो अपने पूर्वजों को कलंकित नहीं होने देगे, देश के तोड़क नहीं रक्षक सावित होंगे ॥